आज समाचारों में दिग्विजय सिंह को कहते सुना कि राजनीति में स्थाई विरोधी कोई नहीं होता। इसने मुझे अप्रैल 1986 में कही एक ग़ज़ल की याद दिलादी जो आपकी खिदमत में पेश है। उन्ही दिनों देश में मिलीजुली सरकार पहली बार बनी थी।
------------- ग़ज़ल -------------
मुख़ालिफ़ मुस्तकिल कोई नहीं है।
यहाँ कमज़ोर दिल कोई नहीं है।
किसे शामिल करूँ मैं काफ़िले में,
कि दिल से मुत्तसिल कोई नहीं है।
मिज़ाजे गर्म कोई, सर्द कोई,
मिज़ाजे मातदिल कोई नहीं है।
लहू आँखों से इतना बह चुका है,
कि ताज़ा ज़ख्मे दिल कोई नहीं है।
सभी हँस कर मिलेंगे हर किसी से,
मिला पर दिल से दिल कोई नहीं है।
चुनू मैं कौन सा गुल खुशनुमा है?
मुकर जाती है गिल कोई नहीं है।
खुदा उनको बचाए बद नज़र से,
रुख़े रोशन पे तिल कोई नहीं है।
--- वी. सी. राय 'नया'
( मुत्तसिल = सहमत , मातदिल = न गर्म न ठंडा - संतुलित , गिल = मिट्टी )
------------- ग़ज़ल -------------
मुख़ालिफ़ मुस्तकिल कोई नहीं है।
यहाँ कमज़ोर दिल कोई नहीं है।
किसे शामिल करूँ मैं काफ़िले में,
कि दिल से मुत्तसिल कोई नहीं है।
मिज़ाजे गर्म कोई, सर्द कोई,
मिज़ाजे मातदिल कोई नहीं है।
लहू आँखों से इतना बह चुका है,
कि ताज़ा ज़ख्मे दिल कोई नहीं है।
सभी हँस कर मिलेंगे हर किसी से,
मिला पर दिल से दिल कोई नहीं है।
चुनू मैं कौन सा गुल खुशनुमा है?
मुकर जाती है गिल कोई नहीं है।
खुदा उनको बचाए बद नज़र से,
रुख़े रोशन पे तिल कोई नहीं है।
--- वी. सी. राय 'नया'
( मुत्तसिल = सहमत , मातदिल = न गर्म न ठंडा - संतुलित , गिल = मिट्टी )