Thursday 25 June 2015

Computer Ghazal Plus

एक ताज़ा ग़ज़ल जो कंप्यूटर पर आधारित है आपकी सेवा में हाज़िर है। अपनी राय ज़रूर दें।

------ कंप्यूटर ग़ज़ल ------

हर जिस्म तो इक कंप्यूटर है।
प्रोग्रामर जिसके अंदर है।

प्रोसेसर ब्रेन मे है बैठा,
ग्यानेंद्रिय इनपुट सेंसर है।

अउटपुट डिवाइस हर कर्मेंद्रिय,
कंट्रोलर तो प्रोसेसर है।

मल्टी प्रोसेस प्रोग्राम करे,
क्या ही अद्भुत प्रोग्रामर है।

हर प्रोसेस, हर कंप्यूटर का,
प्रोग्रामर ही कंट्रोलर है।

दिल की धड़कन है बाइनरी,
हर 'भाषा' का कंपाइलर है।

है ग़ज़ल सुपर भाषा दिल की,
समझे जो 'नया' प्रोग्रामर है।
---- वी. सी. राय 'नया'

पेश है 'ढ़ाई अाखर प्यार' को समर्पित एकदम ताज़ा प्रयोगात्मक (Experimental) ग़ज़ल जिसमें अँग्रेज़ी के शब्द भी हैं -
--------------------- ग़ज़ल ---------------------
प्यार दिल की धड़कन है, प्यार ही से जीवन है।
जान लो इबादत है, ईशवर का वंदन है।
प्यार व्यार मत करना, फ़ालतु का टेन्शन है।
बाँध के ही छोड़ेगा, प्यार ऐसा बंधन है।
जिस्म के लिए है योगा, बैठ जाओ आसन में,
प्यार दिल का योगा है, और मेडिटेशन है।
पार्टी सियासी हो, या हो 'पेज थ्री वाली',
प्यार में दिखावट है, प्यार आज फ़ैशन है।
चार सू अँधेरा है, सूझती न राह कोई,
प्यार करके देख 'नया', टॉप मोटिवेशन है।
--- वी.सी. राय 'नया'

Unwan 244 Dhoop. Ek qita -

छिटकी है तेज़ धूप ग़ज़ल कह रहा हूँ मैं।
चमका है तेरा रूप ग़ज़ल कह रहा हूँ मैं।
पाबंद तौबा का हूँ मैं मियाँ क्या करूँ 'नया',
पी कर टुमैटो सूप ग़ज़ल कह रहा हूँ मैं।।
--- वी. सी. राय 'नया'

मैं लेट महफ़िल में आ रहा हूँ।
ग़ज़ल नई गुनगुना रहा हूँ।

जो ज़्यादा ही मुसकुरा रहा हूँ।
मै ग़म को आँखें दिखा रहा हूँ।

छिपा रहा है तू अपना चेहरा,
मैं अपना दिल तक दिखा रहा हूँ।

कोई दो झूठी ही अब तसल्ली,
वो कह रहे हैं "मैं आ रहा हूँ" ।

'नया' यह है तो कहानी सबकी, 
जो अपनी कह कर सुना रहा हूँ।

--- वी. सी. राय 'नया'

आज की एकदम ताज़ा तरही ग़ज़ल पेश है। कृपया सुधार के लिए सुझाव दीजिएगा।
----------------- ग़ज़ल -------------------
"आती हैं राहे इश्क़ में दुश्वारियाँ तमाम।"
कमज़ोर दिल के वास्ते बीमारियाँ तमाम।

फिर याद आ गईं तेरी शहनाइयाँ तमाम।
क्या-क्या दिखा रही हैं ये तनहाइयाँ तमाम।

तनहाई साथ मेरे है, तनहा कहाँ हूँ मैं ?
सूने से घर में गूँजे हैं किलकारियाँ तमाम।

नदियाँ-पहाड़, बाग़-बग़ीचे औ' फूल-फल,
कुदरत की आप देखिए गुलकारियाँ तमाम।

हो जाय एक पल को भी दीदार यार का,
दिल में खिलेंगी आपके फुलवारियाँ तमाम।

होली में ही चलें ये कहीं पर लिखा है क्या?
आँखों से भी तो चलती हैं पिचकारियाँ तमाम।

ऊँचे जो दिख रहे हैं 'नया' आज आप से,
मिलती रही हैं उनको भी नाकामियाँ तमाम।

--- वी. सी. राय 'नया'


Sunday 18 January 2015

aankhen

Delhi Poetree के सभी दोस्तों को नमस्कार।  मैं हिंदी में ही कविता करता हूँ - मुख्यतः ग़ज़लें। कुछ छंदमुक्त कवितायेँ भी कही हैं। यह सिलसिला 36 वर्षों से चल रहा है। दो पुस्तकें 2007 व 2011 में प्रकाशित हो चुकी हैं।   अमित दहिया जी के माध्यम से आप सब से जुड़ रहा हूँ।  पहली प्रस्तुति के रूप में एकदम ताज़ा ग़ज़ल पेश है। कृपया इसकी कमियाँ व सुधार के लिए सुझाव ज़रूर दें।
---------------- ग़ज़ल ----------------
लाख समझाऊँ समझती ही नहीं हैं आँखें।
बस बरसती हैं, फड़कती ही नहीं हैं आँखें।

आईना रोज़ उमीदों से बड़ी देखा है ,
मुझसे तो बात भी करती ही नहीं हैं आँखें।

देख कर हाले ज़माना ये मुंदी जाती हैं ,
तुमको देखूँ तो ये थकती ही नहीं हैं आँखें।

नेत्र जो दान करे, मर के भी दुनिया देखे,
बाद मरने के भी मरती ही नहीं हैं आँखें।

आपसे लड़ने का कोई तो सबब होगा 'नया',
यूँ किसी शक़्स से लड़ती ही नहीं हैं आँखें।
--- वी. सी. राय 'नया'






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Sunday 17 November 2013

Yaad Hai

1982 में मैंने बहुत ही मशहूर ग़ज़ल की तरह पर दो मतले व कुछ शेर कहे थे, जिनमे हर शेर 'याद है/हैं' से शुरू होता है और 'याद है' रदीफ़ भी है। देखें आपको यह ग़ज़ल कैसी लगती है। 
--------------- ग़ज़ल -------------------
तेरा वो नज़रें चुरा कर मुस्कराना याद है।
"मुझको अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है।"
है यकीं मुझको तुझे मेरा फ़साना याद है।
दर्द में डूबा हुआ ग़मगीं तराना याद है।
याद हैं लम्हे हसीं जो तेरी क़ुर्बत के मिले,
औ' बिछड़ते वक्त तेरा रूठ जाना याद है।
याद हैं वो रेशमी खुशबू भरी ज़ुल्फ़ें तेरी,
और इक लट का जबीं पर झूल आना याद है।
याद है आँखों में मस्ती की छलकती सी शराब,
और क़ातिल तीर नज़रों से चलाना याद है।
याद है होठों पे ठहरी झांकती हरदम हँसी,
हर अदा को बेसबब तेरा छिपाना याद है। 
याद है संदल की मूरत सा महकता इक बदन,
बाँह में भरने कि अनबोली तमन्ना याद है। 
याद हैं तलवे महावर से रचे नाज़ुक 'नया',
और उन्ही पावों घरौंदों का मिटाना याद है। 
--- वी. सी. राय 'नया'


Sunday 27 October 2013

Kaisa hai

25 अक्टूबर  को एक तरही मुशायरे में पढ़ी ग़ज़ल आपकी प्रतिक्रियाओं के लिए पेश है -
------------ तरही ग़ज़ल ------------
सजा के पूछ रहा है जहान कैसा है ?
"ज़मीन कैसी है ये आसमान कैसा है?"
चमन में फूल, सदफ़ में गुहर, फ़लक पे नजूम,
सजे हैं देख मुकम्मल जहान कैसा है।
ज़मीन माँ की तरह,  आसमाँ पिता की तरह,
मगर ये फ़ासला इस दरमियान कैसा है ?
नज़र से कर ही लिए उसने प्यार के वादे ,
खुली न फिर भी ज़ुबाँ बेज़ुबान कैसा है ?
किसी के क़त्ल की ख़ातिर बनगा बज्र तेरा ,
अरे दधीच ! तेरा देह दान कैसा है ?
कि मेरे बाद ये ऑंखें किसी की ज्योति बने,
तुम्ही कहो की मेरा नेत्रदान कैसा है ?
ज़मीन ढूँढ रहा था मज़ार के क़ाबिल ,
तो क़ीमतों ने कहा असमान कैसा है ?
मैं होके आया हूँ बीजिंग, वहाँ ये पूछा गया,
जहाँ के मैप में ये ताईवान कैसा है ?
यहाँ तो सब हैं 'नया' दो दिनों के ही मेहमाँ,
भुला दिए हैं जो घर मेज़बान कैसा है ?
--- वी. सी. राय 'नया'

Monday 14 October 2013

KAAM SE PYAR

--- एक मुसल्सल ग़ज़ल ---

जिसको भी काम  से प्यार है।
ये समझ लो समझदार है।
प्रेम भी उपजा है काम से,
काम से ही ये संसार है।
काम का देव भी एक है,
रति से जिसको बहुत प्यार है।
बिन प्रिय भस्म शिव ने किया,
संयम की क्रोध से हार है।
क्रोध संसार का शत्रु है,
दिख चूका ये कई बार है।
क्रोध को भी जो बस में करे,
ऐसा बलवान बस प्यार है।
काम का दास यदि बन गया,
प्यार बस नाम का प्यार है।
प्रेम है नाम जिसका 'नया',
सबको जोड़े वो उदगार है।
--- वी. सी. राय 'नया'

Sunday 8 September 2013

KHAZANA

एक मिनी नज़्म आपकी सेवा में पेश है - आपकी प्रतिक्रिया की अपेक्षा है।
--------------- ख़ज़ाना ---------------------
ख़ज़ाना गाँव में मेरे गड़ा है, क्या किया जाए।
समय के सामने झुकना पड़ा है, क्या किया जाए।
मेरे बेटों ने छोड़ा गाँव सर्विस और बिज़नेस में,
यहाँ हर खेत अब बंजर पड़ा है, क्या किया जाए।
निकल जाती है सारी आय रहने और खाने में,
तक़ाज़ा बीज का आकर पड़ा है, क्या किया जाए।
पढ़ाई यूँ तो स्कुलों में बिल्कुल मुफ़्त है लेकिन,
जो मिड-डे मील में विष आ पड़ा है, क्या किया जाए।
बंधा बैठा अपाहिज झोपड़ी से और खेतों से ,
सफ़र बैसाखियाँ लेकर खड़ा है, क्या किया जाए।
--- वी. सी. राय 'नया'

Tuesday 6 August 2013

NBT

नवभारत टाइम्स !

लखनऊ में हार्दिक स्वागत व आभार। "मुस्कराइए कि आप लखनऊ में हैं।"
आपकी ही पंक्तियों में थोड़ी सी क़तर-ब्योंत करके प्रस्तुत कर रहा हूँ। अच्छी लगें तो प्रकाशित करें, अन्यथा "गुस्ताखी माफ़"।

आने वाले कल की उमीदें , खरे जो उतरें पहले आप।
गूँगी हो गई हक़ की लड़ाई , शोर उठाएँ पहले आप। 
रिश्वत औ' सौदेबाज़ी को , अब ठुकराएँ पहले आप।
हर परिवर्तन शुरू आपसे , सफ़ल बनाएं पहले आप।

शुरू करें दिन 'नवभारत' से, इसके लिए हैं पहले आप।

--- वी. सी. राय  'नया'

पुनश्च : मै एक सेवानिवृत चीफ़ इंजीनियर हूँ तथा 35 वर्षों से साहित्य सेवा कर रहा हूँ। शीघ्र ही कविता या हास्य-व्यंग्य लेख प्रकाशन के लिए भेजूँगा।