Delhi Poetree के सभी दोस्तों को नमस्कार। मैं हिंदी में ही कविता करता हूँ - मुख्यतः ग़ज़लें। कुछ छंदमुक्त कवितायेँ भी कही हैं। यह सिलसिला 36 वर्षों से चल रहा है। दो पुस्तकें 2007 व 2011 में प्रकाशित हो चुकी हैं। अमित दहिया जी के माध्यम से आप सब से जुड़ रहा हूँ। पहली प्रस्तुति के रूप में एकदम ताज़ा ग़ज़ल पेश है। कृपया इसकी कमियाँ व सुधार के लिए सुझाव ज़रूर दें।
---------------- ग़ज़ल ----------------
लाख समझाऊँ समझती ही नहीं हैं आँखें।
बस बरसती हैं, फड़कती ही नहीं हैं आँखें।
आईना रोज़ उमीदों से बड़ी देखा है ,
मुझसे तो बात भी करती ही नहीं हैं आँखें।
देख कर हाले ज़माना ये मुंदी जाती हैं ,
तुमको देखूँ तो ये थकती ही नहीं हैं आँखें।
नेत्र जो दान करे, मर के भी दुनिया देखे,
बाद मरने के भी मरती ही नहीं हैं आँखें।
आपसे लड़ने का कोई तो सबब होगा 'नया',
यूँ किसी शक़्स से लड़ती ही नहीं हैं आँखें।
--- वी. सी. राय 'नया'
mean you mean mean mean mean mean mean mean
---------------- ग़ज़ल ----------------
लाख समझाऊँ समझती ही नहीं हैं आँखें।
बस बरसती हैं, फड़कती ही नहीं हैं आँखें।
आईना रोज़ उमीदों से बड़ी देखा है ,
मुझसे तो बात भी करती ही नहीं हैं आँखें।
देख कर हाले ज़माना ये मुंदी जाती हैं ,
तुमको देखूँ तो ये थकती ही नहीं हैं आँखें।
नेत्र जो दान करे, मर के भी दुनिया देखे,
बाद मरने के भी मरती ही नहीं हैं आँखें।
आपसे लड़ने का कोई तो सबब होगा 'नया',
यूँ किसी शक़्स से लड़ती ही नहीं हैं आँखें।
--- वी. सी. राय 'नया'
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