Friday, 26 July 2013

KAKARIYAN

ककड़ियाँ
दोस्तों! अगर 'ककड़ियाँ' से आपको 'लैला की उंगलियाँ व मजनूँ की पसलियाँ' याद आती हैं तो कविता के दोषों की अनदेखी करते हुए कहानी और उसमे 'नया' पहलू देखें। पेश है एक नज़्म जो मैंने 1980 में कही थी।

अबकी गया जो घर, लखनऊ शहर।
बिकती दिखीं ककड़ियाँ वाँ एक दोपहर।

ककड़ियाँ थीं कि पेन्सिल, उंह तुलना ये कैंसिल।
मजनूँ की हैं पसलियाँ, लैला की ये उंगलियाँ।
किस्सा वो याद आया बचपन में जो पढ़ा था,
जिसमे थी रह गई आखिर में एक कसर। अबकी गया जो घर ----

लखनऊ में रहता था एक बीरबल।
दीवान नवाब जंग का था खासो खासतर।
चर्चे की बात उसकी थे अक्लो फ़हम हुनर,
लेकिन तमाम किस्से में आया नहीं ज़िकर। अबकी गया जो घर ----

किस्सा दरअस्ल यों था कि नवाबी के दौर में,
दौलत की थी कमी नहीं इज्ज़त की होड़ में।
नवाब जंग के गुमाश्ते की एक दोपहर,
शुरू फ़सल की ककड़ियों पर पड़ी नज़र। अबकी गया जो घर ----

सौदा वो कर रहा था दो कलदार में,
मुंशी नवाब दोस्त का पहुँचा बाज़ार में।
कर दिया जिसने रुपये चार का ऑफ़र,
ये देख गुमाश्ते ने किये दस थे बढ़ाकर।
दस बढ़ के हुए सौ, जो बढ़े तो हुए हज़ार,
दस हज़ार, बीस हज़ार, तीस हज़ार, साठ हज़ार।
इस तरह बढ़ीं बोलियाँ मासूम ककड़ियों पर,
कि जीत गया मुंशी उन्हें लाख में लेकर। अबकी गया जो घर ----

सुनके ये वाकया नवाब जंग परेशान,
इज्ज़त का मेरी कुछ न गुमाश्ते ने रखा ध्यान,
दौलत है किस काम की बचाकर रखूं जो घर,
बस लाख में इज्ज़त भरे बाज़ार गई उतर। अबकी गया जो घर ----

नवाब दोस्त ने सुना जब वाकया यही,
इनआम देके मुंशी को बात ये कही,
भेजो ककड़ियाँ रख के इक सोने के थाल में,
तोहफ़ा नवाब जंग को, है देखो किस हाल में।

नवाब जंग ने तोहफ़ा किया क़ुबूल भरे दिल,
दो लाख धरे थाल में फिर भी न भरा दिल.
बुलाकर तुरत दीवान को लाने कहा ज़हर,
अब जी के क्या करेंगे जब इज्ज़त गई उतर। अबकी गया जो घर ----

ककड़ियाँ खरीद सके न एक लाख में,
नवाब दोस्त बढ़ गया तोहफ़े से साख में।
सुनके सब वाकया कहा दीवान ने परवर,
इज्ज़त तो बढ़ी आपकी, आया तोहफ़ा नज़र।
दो लाख से रुखसत किया तोहफ़े को आपने,
समझें ख़रीदी ककड़ियाँ हैं दो लाख में.
लेकिन ये आपने न ली हैं घर के वास्ते,
ये तो महज़ शौक़ था कुत्तों के वास्ते।

खिला दीजिये ककड़ियाँ कुत्तों को बुला कर,
मै आम कर रहा हूँ अभी जा के ये ख़बर,
सानी नवाब जंग का नहीं कोई इस शहर,
कुत्तों को जिसके कीमती खाने हैं मयस्सर।
पर आह! वो मासूम ककड़ियों का मुकद्दर,
तारीखी उँगलियों व पसलियों का मुकद्दर,
कुँजड़े का मुकद्दर व मुंशी का मुकद्दर,
इस ताले से उस ताले में दौलत का मुकद्दर।
इस ताले से उस ताले में दौलत का मुकद्दर।

अबकी गया जो घर, लखनऊ शहर।
बिकती दिखीं ककड़ियां वाँ एक दोपहर।
---- वी. सी. राय 'नया'ककड़ियाँ
दोस्तों! एक बहुत पुरानी कहानी (जो मैंने 1953 में अपने हाई स्कूल के कोर्स में पढ़ी थी) का 'नया' रूप देखिये।कविता के दोषों की अनदेखी करते हुए कहानी और उसमे 'नया' पहलू देखिये। पेश है एक नज़्म जो मैंने 1980 में कही थी।

--------------------------------- ककड़ियाँ ---------------------------------
अबकी गया जो घर. लखनऊ शहर। बिकती दिखीं ककड़ियाँ वाँ एक दोपहर।
ककड़ियाँ थीं कि पेन्सिल, उंह तुलना ये कैंसिल। मजनूँ की हैं पसलियाँ, लैला की ये उंगलियाँ।
किस्सा वो याद आया बचपन में जो पढ़ा था, जिसमे थी रह गई आखिर में एक कसर।
लखनऊ में रहता था एक बीरबल। दीवान नवाब जंग का था खासो खासतर।
चर्चे की बात उसकी थे अक्लो फ़हम हुनर, लेकिन तमाम किस्से में आया नहीं ज़िकर।
अबकी गया जो घर ----

किस्सा दरअस्ल यों था कि नवाबी के दौर में, दौलत की थी कमी नहीं इज्ज़त की होड़ में।
नवाब जंग के गुमाश्ते की एक दोपहर, शुरू फ़सल की ककड़ियों पर पड़ी नज़र।
सौदा वो कर रहा था दो कलदार में, मुंशी नवाब दोस्त का पहुँचा बाज़ार में।
कर दिया जिसने रुपये चार का ऑफ़र,ये देख गुमाश्ते ने किये दस थे बढ़ाकर।
दस बढ़ के हुए सौ, जो बढ़े तो हुए हज़ार, दस हज़ार, बीस हज़ार, तीस हज़ार, साठ हज़ार।
इस तरह बढ़ीं बोलियाँ मासूम ककड़ियों पर, कि जीत गया मुंशी उन्हें लाख में लेकर।
अबकी गया जो घर ----

सुनके ये वाकया नवाब जंग परेशान, इज्ज़त का मेरी कुछ न गुमाश्ते ने रखा ध्यान,
दौलत है किस काम की बचाकर रखूँ जो घर, बस लाख में इज्ज़त भरे बाज़ार गई उतर।
अबकी गया जो घर ----

नवाब दोस्त ने सुना जब वाकया यही, इनआम देके मुंशी को बात ये कही,
भेजो ककड़ियाँ रख के इक सोने के थाल में, तोहफ़ा नवाब जंग को, है देखो किस हाल में।
नवाब जंग ने तोहफ़ा किया क़ुबूल भरे दिल, दो लाख धरे थाल में फिर भी न भरा दिल।
बुलाकर तुरत दीवान को लाने कहा ज़हर, अब जी के क्या करेंगे जब इज्ज़त गई उतर।
अबकी गया जो घर ----

ककड़ियाँ खरीद सके न एक लाख में, नवाब दोस्त बढ़ गया तोहफ़े से साख में।
सुनके सब वाकया कहा दीवान ने परवर, इज्ज़त तो बढ़ी आपकी, आया तोहफ़ा नज़र।
दो लाख से रुखसत किया तोहफ़े को आपने, समझें ख़रीदी ककड़ियाँ हैं दो लाख में.
लेकिन ये आपने न ली हैं घर के वास्ते, ये तो महज़ शौक़ था कुत्तों के वास्ते।
खिला दीजिये ककड़ियाँ कुत्तों को बुला कर, मै आम कर रहा हूँ अभी जा के ये ख़बर,
सानी नवाब जंग का नहीं कोई इस शहर, कुत्तों को जिसके कीमती खाने हैं मयस्सर।
पर आह! वो मासूम ककड़ियों का मुकद्दर, तारीखी उँगलियों व पसलियों का मुकद्दर,
कुँजड़े का मुकद्दर व मुंशी का मुकद्दर, इस ताले से उस ताले में दौलत का मुकद्दर।
इस ताले से उस ताले में दौलत का मुकद्दर।
अबकी गया जो घर, लखनऊ शहर। बिकती दिखीं ककड़ियां वाँ एक दोपहर।
---- वी. सी. राय 'नया'
पुनश्च : यदि आपको कहानी का शीर्षक व लेखक का नाम याद आए तो बताने की कृपा करियेगा।


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