'प्रयास' के प्रथम अंक के लिए प्रस्तुत है एक बसंती ग़ज़ल -
------------- ग़ज़ल --------------
ये पतझर का मौसम, बसंती हवाएँ।
सदा साथ एक दूसरे का निभाएँ।
जो पत्ते सुखाएं, गिराएँ , उड़ाएँ।
हवाएँ वही कोपलें भी खिलाएँ।
गुलों को बरसने का अरमा बहुत है,
ज़रा आप गुलशन में आ मुस्कराएँ।
अंधेरो अभी लो निकलता है सूरज,
कहाँ तक हिमायत करेंगी घटाएँ।
अँधेरा 'नया' इक उजाला बनेगा,
ज़रा आप चेहरे से चिलमन हटाएँ।
--- वी.सी. राय 'नया'
------------- ग़ज़ल --------------
ये पतझर का मौसम, बसंती हवाएँ।
सदा साथ एक दूसरे का निभाएँ।
जो पत्ते सुखाएं, गिराएँ , उड़ाएँ।
हवाएँ वही कोपलें भी खिलाएँ।
गुलों को बरसने का अरमा बहुत है,
ज़रा आप गुलशन में आ मुस्कराएँ।
अंधेरो अभी लो निकलता है सूरज,
कहाँ तक हिमायत करेंगी घटाएँ।
अँधेरा 'नया' इक उजाला बनेगा,
ज़रा आप चेहरे से चिलमन हटाएँ।
--- वी.सी. राय 'नया'
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