एक शेर की एक मुख़्तसर सी ग़ज़ल देखिए जिसमे मतले बस चार हैं -
-------------- ग़ज़ल ---------------
चार दिन की मिली ज़िन्दगी मुख़्तसर ,
-------------- ग़ज़ल ---------------
चार दिन की मिली ज़िन्दगी मुख़्तसर ,
चार कन्धों पे ख़त्म होगा इसका सफ़र।
कल थे आए कहाँ से नहीं कुछ ख़बर,
और चले जाएंगे कल न जाने किधर।
यूँ ही चलता रहूँगा सफ़र-दर-सफ़र,
जब तलक पड़ न जाए करम की नज़र।
मेरा थकने का गिरने का मिट जाए डर,
हाथ पकड़ो मेरा और बनो हमसफ़र।
कुछ भला कर चलो, कुछ भला कह चलो,
सोचता ही रहा मैं 'नया' उम्र भर।
---- वी. सी. राय 'नया'
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