एक ग़ज़ल मेरी भी
दीखता साकी की आँखों में है मैख्नाना मुझे।
क्या ज़रूरत हाथ में लेने की पैमाना मुझे।
मोहतरम वाइज़ ने जब सौंपा है पैमाना मुझे।
तब ही दुनिया ने बिरादर अपना पहचाना मुझे।
ज़िन्दगी के पेचोखम जुल्फों से तेरी कम नहीं,
मैं उलझता ही गया आया न सुलझाना मुझे।
वो तो मेरा है, कोई शुबहा नहीं, हर हाल में ,
रास आता ही नहीं पर उसका कहलाना मुझे।
कौर तेरा लेके 'चिन्नो' फुर्र से उड़ जाएगी , (चिड़िया)
याद आता है वो मा के हाथ से खाना मुझे।
दीखता साकी की आँखों में है मैख्नाना मुझे।
क्या ज़रूरत हाथ में लेने की पैमाना मुझे।
मोहतरम वाइज़ ने जब सौंपा है पैमाना मुझे।
तब ही दुनिया ने बिरादर अपना पहचाना मुझे।
ज़िन्दगी के पेचोखम जुल्फों से तेरी कम नहीं,
मैं उलझता ही गया आया न सुलझाना मुझे।
वो तो मेरा है, कोई शुबहा नहीं, हर हाल में ,
रास आता ही नहीं पर उसका कहलाना मुझे।
कौर तेरा लेके 'चिन्नो' फुर्र से उड़ जाएगी , (चिड़िया)
याद आता है वो मा के हाथ से खाना मुझे।
मेरा 'पोता' पीठ पर चढ़, हांकता है जब मुझे, (grand child)
कष्ट तन-मन के भुलाता घोडा बन जाना मुझे।
हैं बहुत ही खूबसूरत ख्वाब बचपन के 'नया',
बाद मरने के सही, बचपन में पहुंचाना मुझे।
--- वी. सी. राय 'नया'
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