Monday, 24 September 2012

Jam dhalta gaya


FB के दोस्तों के लिए एक और ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ -
-------------- ग़ज़ल --------------
रात ढलती गई जाम  ढलता गया।
रफ़्ता-रफ़्ता अँधेरा भी छटता गया।
मैं तेरे इश्क़ में डूबता ही गया।
और तेरा इश्क़ परवान चढ़ता गया।
उसको अपना बनाने की कोशिश में ही,
रफ़्ता-रफ़्ता मैं उसका ही बनता गया।
जो सितारा जबीं पर तेरी जँच सके,
ढूँढते - ढूँढते मैं तो गिनता गया।
होंठ सूखे रहे, प्यास बढ़ती गई ,
जाम छलका नहीं सिर्फ़ छलता गया।
नींद आती नहीं, याद जाती नहीं,
भोर का स्वप्न सपना ही बनता गया।
दर्द पीते गए, ज़ख्म सीते गए ,
रोज़ ही इक 'नया' ज़ख्म लगता गया।
---- वी. सी. राय 'नया'

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