Sunday, 20 January 2013

Dhuan

FB के मित्रो ! सादर पेश है आज के हालात की एक
------------------ ग़ज़ल ---------------------
धुआँ-धुआँ-धुआँ-धुआँ, है हर तरफ  धुआँ-धुआँ।
भटक रहा है हर बशर, मैं ही एक नहीं यहाँ।
एक आग है दबी-दबी, झुलस रही है ज़िन्दगी,
सुलग रहा है आसमाँ, सुना रहा है दास्ताँ।
धुएँ की एक दीवार है, ये रहबरी कमाल है,
न राह सूझती कोई, कि काफ़िला चला कहाँ।
कि चिमनियों से हैं कहीं, कि गाड़ियों से हैं कहीं,
कि सिगरेटों से हैं कहीं, ये जिस्म हो रहे धुआँ।
ये नीव थी चट्टान की, जो रेत के मकान की,
ये आँधियों में उड़ चला, तो नीव ही बची निशाँ।
वो अधजली चिताओं से भी चुन के लाए लकड़ियाँ,
कि चूल्हा घर में तब जले, ये मुफ़लिसी का इम्तिहाँ।
ये शोला-ए अज़ाब है, सिसक रहा है जो 'नया',
हवाएँ दो भड़क उठे, न फिर रहे कहीं धुंआ।
--- वी. सी. राय 'नया'

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