Monday, 28 January 2013

Matla

FB के दोस्तों ! इस ग़ज़ल के मतले में उर्दू के अनुसार 'मतला' व 'निकला' शायद हमक़फ़िया न हों, पर हिन्दी में तो ऐसे ही लिखते हैं, अतः मै छूट ले रहा हूँ। आपकी समीक्षा के लिए सादर पेश है -
--------------- ग़ज़ल -----------------
यों सरे शाम ग़ज़ल छेड़ के बैठी मतला।
सुब्ह मक़्ते पे हुई गीत बना दिन निकला।
एक-एक शेर पे दी दाद ग़ज़ल ने मुझको,
ऐसे माहौल में हर शेर ग़ज़ब का निकला।
आज माहौल की गर्मी औ' दबावों से न डर,
हीरा बनता है ज़मीं में ही तो दब कर कोयला।
आँसुओं में भी तो होती है बला की गर्मी,
दिल अगर दिल है तो आँसू से हमेशा पिघला।
हुस्न के हाथ में देखी जो कमाँ शोख़ी की,
तीर खाने को मेरा फिर से 'नया' दिल मचला।
--- वी. सी. राय 'नया'


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