Sunday, 17 November 2013

Yaad Hai

1982 में मैंने बहुत ही मशहूर ग़ज़ल की तरह पर दो मतले व कुछ शेर कहे थे, जिनमे हर शेर 'याद है/हैं' से शुरू होता है और 'याद है' रदीफ़ भी है। देखें आपको यह ग़ज़ल कैसी लगती है। 
--------------- ग़ज़ल -------------------
तेरा वो नज़रें चुरा कर मुस्कराना याद है।
"मुझको अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है।"
है यकीं मुझको तुझे मेरा फ़साना याद है।
दर्द में डूबा हुआ ग़मगीं तराना याद है।
याद हैं लम्हे हसीं जो तेरी क़ुर्बत के मिले,
औ' बिछड़ते वक्त तेरा रूठ जाना याद है।
याद हैं वो रेशमी खुशबू भरी ज़ुल्फ़ें तेरी,
और इक लट का जबीं पर झूल आना याद है।
याद है आँखों में मस्ती की छलकती सी शराब,
और क़ातिल तीर नज़रों से चलाना याद है।
याद है होठों पे ठहरी झांकती हरदम हँसी,
हर अदा को बेसबब तेरा छिपाना याद है। 
याद है संदल की मूरत सा महकता इक बदन,
बाँह में भरने कि अनबोली तमन्ना याद है। 
याद हैं तलवे महावर से रचे नाज़ुक 'नया',
और उन्ही पावों घरौंदों का मिटाना याद है। 
--- वी. सी. राय 'नया'


Sunday, 27 October 2013

Kaisa hai

25 अक्टूबर  को एक तरही मुशायरे में पढ़ी ग़ज़ल आपकी प्रतिक्रियाओं के लिए पेश है -
------------ तरही ग़ज़ल ------------
सजा के पूछ रहा है जहान कैसा है ?
"ज़मीन कैसी है ये आसमान कैसा है?"
चमन में फूल, सदफ़ में गुहर, फ़लक पे नजूम,
सजे हैं देख मुकम्मल जहान कैसा है।
ज़मीन माँ की तरह,  आसमाँ पिता की तरह,
मगर ये फ़ासला इस दरमियान कैसा है ?
नज़र से कर ही लिए उसने प्यार के वादे ,
खुली न फिर भी ज़ुबाँ बेज़ुबान कैसा है ?
किसी के क़त्ल की ख़ातिर बनगा बज्र तेरा ,
अरे दधीच ! तेरा देह दान कैसा है ?
कि मेरे बाद ये ऑंखें किसी की ज्योति बने,
तुम्ही कहो की मेरा नेत्रदान कैसा है ?
ज़मीन ढूँढ रहा था मज़ार के क़ाबिल ,
तो क़ीमतों ने कहा असमान कैसा है ?
मैं होके आया हूँ बीजिंग, वहाँ ये पूछा गया,
जहाँ के मैप में ये ताईवान कैसा है ?
यहाँ तो सब हैं 'नया' दो दिनों के ही मेहमाँ,
भुला दिए हैं जो घर मेज़बान कैसा है ?
--- वी. सी. राय 'नया'

Monday, 14 October 2013

KAAM SE PYAR

--- एक मुसल्सल ग़ज़ल ---

जिसको भी काम  से प्यार है।
ये समझ लो समझदार है।
प्रेम भी उपजा है काम से,
काम से ही ये संसार है।
काम का देव भी एक है,
रति से जिसको बहुत प्यार है।
बिन प्रिय भस्म शिव ने किया,
संयम की क्रोध से हार है।
क्रोध संसार का शत्रु है,
दिख चूका ये कई बार है।
क्रोध को भी जो बस में करे,
ऐसा बलवान बस प्यार है।
काम का दास यदि बन गया,
प्यार बस नाम का प्यार है।
प्रेम है नाम जिसका 'नया',
सबको जोड़े वो उदगार है।
--- वी. सी. राय 'नया'

Sunday, 8 September 2013

KHAZANA

एक मिनी नज़्म आपकी सेवा में पेश है - आपकी प्रतिक्रिया की अपेक्षा है।
--------------- ख़ज़ाना ---------------------
ख़ज़ाना गाँव में मेरे गड़ा है, क्या किया जाए।
समय के सामने झुकना पड़ा है, क्या किया जाए।
मेरे बेटों ने छोड़ा गाँव सर्विस और बिज़नेस में,
यहाँ हर खेत अब बंजर पड़ा है, क्या किया जाए।
निकल जाती है सारी आय रहने और खाने में,
तक़ाज़ा बीज का आकर पड़ा है, क्या किया जाए।
पढ़ाई यूँ तो स्कुलों में बिल्कुल मुफ़्त है लेकिन,
जो मिड-डे मील में विष आ पड़ा है, क्या किया जाए।
बंधा बैठा अपाहिज झोपड़ी से और खेतों से ,
सफ़र बैसाखियाँ लेकर खड़ा है, क्या किया जाए।
--- वी. सी. राय 'नया'

Tuesday, 6 August 2013

NBT

नवभारत टाइम्स !

लखनऊ में हार्दिक स्वागत व आभार। "मुस्कराइए कि आप लखनऊ में हैं।"
आपकी ही पंक्तियों में थोड़ी सी क़तर-ब्योंत करके प्रस्तुत कर रहा हूँ। अच्छी लगें तो प्रकाशित करें, अन्यथा "गुस्ताखी माफ़"।

आने वाले कल की उमीदें , खरे जो उतरें पहले आप।
गूँगी हो गई हक़ की लड़ाई , शोर उठाएँ पहले आप। 
रिश्वत औ' सौदेबाज़ी को , अब ठुकराएँ पहले आप।
हर परिवर्तन शुरू आपसे , सफ़ल बनाएं पहले आप।

शुरू करें दिन 'नवभारत' से, इसके लिए हैं पहले आप।

--- वी. सी. राय  'नया'

पुनश्च : मै एक सेवानिवृत चीफ़ इंजीनियर हूँ तथा 35 वर्षों से साहित्य सेवा कर रहा हूँ। शीघ्र ही कविता या हास्य-व्यंग्य लेख प्रकाशन के लिए भेजूँगा।

Friday, 26 July 2013

KAKARIYAN

ककड़ियाँ
दोस्तों! अगर 'ककड़ियाँ' से आपको 'लैला की उंगलियाँ व मजनूँ की पसलियाँ' याद आती हैं तो कविता के दोषों की अनदेखी करते हुए कहानी और उसमे 'नया' पहलू देखें। पेश है एक नज़्म जो मैंने 1980 में कही थी।

अबकी गया जो घर, लखनऊ शहर।
बिकती दिखीं ककड़ियाँ वाँ एक दोपहर।

ककड़ियाँ थीं कि पेन्सिल, उंह तुलना ये कैंसिल।
मजनूँ की हैं पसलियाँ, लैला की ये उंगलियाँ।
किस्सा वो याद आया बचपन में जो पढ़ा था,
जिसमे थी रह गई आखिर में एक कसर। अबकी गया जो घर ----

लखनऊ में रहता था एक बीरबल।
दीवान नवाब जंग का था खासो खासतर।
चर्चे की बात उसकी थे अक्लो फ़हम हुनर,
लेकिन तमाम किस्से में आया नहीं ज़िकर। अबकी गया जो घर ----

किस्सा दरअस्ल यों था कि नवाबी के दौर में,
दौलत की थी कमी नहीं इज्ज़त की होड़ में।
नवाब जंग के गुमाश्ते की एक दोपहर,
शुरू फ़सल की ककड़ियों पर पड़ी नज़र। अबकी गया जो घर ----

सौदा वो कर रहा था दो कलदार में,
मुंशी नवाब दोस्त का पहुँचा बाज़ार में।
कर दिया जिसने रुपये चार का ऑफ़र,
ये देख गुमाश्ते ने किये दस थे बढ़ाकर।
दस बढ़ के हुए सौ, जो बढ़े तो हुए हज़ार,
दस हज़ार, बीस हज़ार, तीस हज़ार, साठ हज़ार।
इस तरह बढ़ीं बोलियाँ मासूम ककड़ियों पर,
कि जीत गया मुंशी उन्हें लाख में लेकर। अबकी गया जो घर ----

सुनके ये वाकया नवाब जंग परेशान,
इज्ज़त का मेरी कुछ न गुमाश्ते ने रखा ध्यान,
दौलत है किस काम की बचाकर रखूं जो घर,
बस लाख में इज्ज़त भरे बाज़ार गई उतर। अबकी गया जो घर ----

नवाब दोस्त ने सुना जब वाकया यही,
इनआम देके मुंशी को बात ये कही,
भेजो ककड़ियाँ रख के इक सोने के थाल में,
तोहफ़ा नवाब जंग को, है देखो किस हाल में।

नवाब जंग ने तोहफ़ा किया क़ुबूल भरे दिल,
दो लाख धरे थाल में फिर भी न भरा दिल.
बुलाकर तुरत दीवान को लाने कहा ज़हर,
अब जी के क्या करेंगे जब इज्ज़त गई उतर। अबकी गया जो घर ----

ककड़ियाँ खरीद सके न एक लाख में,
नवाब दोस्त बढ़ गया तोहफ़े से साख में।
सुनके सब वाकया कहा दीवान ने परवर,
इज्ज़त तो बढ़ी आपकी, आया तोहफ़ा नज़र।
दो लाख से रुखसत किया तोहफ़े को आपने,
समझें ख़रीदी ककड़ियाँ हैं दो लाख में.
लेकिन ये आपने न ली हैं घर के वास्ते,
ये तो महज़ शौक़ था कुत्तों के वास्ते।

खिला दीजिये ककड़ियाँ कुत्तों को बुला कर,
मै आम कर रहा हूँ अभी जा के ये ख़बर,
सानी नवाब जंग का नहीं कोई इस शहर,
कुत्तों को जिसके कीमती खाने हैं मयस्सर।
पर आह! वो मासूम ककड़ियों का मुकद्दर,
तारीखी उँगलियों व पसलियों का मुकद्दर,
कुँजड़े का मुकद्दर व मुंशी का मुकद्दर,
इस ताले से उस ताले में दौलत का मुकद्दर।
इस ताले से उस ताले में दौलत का मुकद्दर।

अबकी गया जो घर, लखनऊ शहर।
बिकती दिखीं ककड़ियां वाँ एक दोपहर।
---- वी. सी. राय 'नया'ककड़ियाँ
दोस्तों! एक बहुत पुरानी कहानी (जो मैंने 1953 में अपने हाई स्कूल के कोर्स में पढ़ी थी) का 'नया' रूप देखिये।कविता के दोषों की अनदेखी करते हुए कहानी और उसमे 'नया' पहलू देखिये। पेश है एक नज़्म जो मैंने 1980 में कही थी।

--------------------------------- ककड़ियाँ ---------------------------------
अबकी गया जो घर. लखनऊ शहर। बिकती दिखीं ककड़ियाँ वाँ एक दोपहर।
ककड़ियाँ थीं कि पेन्सिल, उंह तुलना ये कैंसिल। मजनूँ की हैं पसलियाँ, लैला की ये उंगलियाँ।
किस्सा वो याद आया बचपन में जो पढ़ा था, जिसमे थी रह गई आखिर में एक कसर।
लखनऊ में रहता था एक बीरबल। दीवान नवाब जंग का था खासो खासतर।
चर्चे की बात उसकी थे अक्लो फ़हम हुनर, लेकिन तमाम किस्से में आया नहीं ज़िकर।
अबकी गया जो घर ----

किस्सा दरअस्ल यों था कि नवाबी के दौर में, दौलत की थी कमी नहीं इज्ज़त की होड़ में।
नवाब जंग के गुमाश्ते की एक दोपहर, शुरू फ़सल की ककड़ियों पर पड़ी नज़र।
सौदा वो कर रहा था दो कलदार में, मुंशी नवाब दोस्त का पहुँचा बाज़ार में।
कर दिया जिसने रुपये चार का ऑफ़र,ये देख गुमाश्ते ने किये दस थे बढ़ाकर।
दस बढ़ के हुए सौ, जो बढ़े तो हुए हज़ार, दस हज़ार, बीस हज़ार, तीस हज़ार, साठ हज़ार।
इस तरह बढ़ीं बोलियाँ मासूम ककड़ियों पर, कि जीत गया मुंशी उन्हें लाख में लेकर।
अबकी गया जो घर ----

सुनके ये वाकया नवाब जंग परेशान, इज्ज़त का मेरी कुछ न गुमाश्ते ने रखा ध्यान,
दौलत है किस काम की बचाकर रखूँ जो घर, बस लाख में इज्ज़त भरे बाज़ार गई उतर।
अबकी गया जो घर ----

नवाब दोस्त ने सुना जब वाकया यही, इनआम देके मुंशी को बात ये कही,
भेजो ककड़ियाँ रख के इक सोने के थाल में, तोहफ़ा नवाब जंग को, है देखो किस हाल में।
नवाब जंग ने तोहफ़ा किया क़ुबूल भरे दिल, दो लाख धरे थाल में फिर भी न भरा दिल।
बुलाकर तुरत दीवान को लाने कहा ज़हर, अब जी के क्या करेंगे जब इज्ज़त गई उतर।
अबकी गया जो घर ----

ककड़ियाँ खरीद सके न एक लाख में, नवाब दोस्त बढ़ गया तोहफ़े से साख में।
सुनके सब वाकया कहा दीवान ने परवर, इज्ज़त तो बढ़ी आपकी, आया तोहफ़ा नज़र।
दो लाख से रुखसत किया तोहफ़े को आपने, समझें ख़रीदी ककड़ियाँ हैं दो लाख में.
लेकिन ये आपने न ली हैं घर के वास्ते, ये तो महज़ शौक़ था कुत्तों के वास्ते।
खिला दीजिये ककड़ियाँ कुत्तों को बुला कर, मै आम कर रहा हूँ अभी जा के ये ख़बर,
सानी नवाब जंग का नहीं कोई इस शहर, कुत्तों को जिसके कीमती खाने हैं मयस्सर।
पर आह! वो मासूम ककड़ियों का मुकद्दर, तारीखी उँगलियों व पसलियों का मुकद्दर,
कुँजड़े का मुकद्दर व मुंशी का मुकद्दर, इस ताले से उस ताले में दौलत का मुकद्दर।
इस ताले से उस ताले में दौलत का मुकद्दर।
अबकी गया जो घर, लखनऊ शहर। बिकती दिखीं ककड़ियां वाँ एक दोपहर।
---- वी. सी. राय 'नया'
पुनश्च : यदि आपको कहानी का शीर्षक व लेखक का नाम याद आए तो बताने की कृपा करियेगा।


Saturday, 13 July 2013

Sun Lijiye

दोस्तों ! पेश है एक ग़ज़ल जो मैं 20-25 साल पहले ग़ुलाम अली की धुन पर गाया करता था => 'सुन लीजिए' - बताइयेगा पढ़ने में कैसी लगी।
----------------- ग़ज़ल ------------------
दास्ताने ग़म सुनाने आ गया, सुन लीजिए।
जान-दिल के साथ और क्या-क्या गया सुन लीजिए।
चैन दिल का छिन गया, आँखों की नींदें उड़ गईं,
एक जीने की तमन्ना पा गया सुन लीजिए।
जो निगाहे नाज़ की क़ातिल ज़दों में आ गया,
उम्र भर बेमौत ही मारा गया, सुन लीजिए।
आ रही है ये सदा पत्थर का सीना चीरकर ,
कितने अरमानों को दफ़नाया गया, सुन लीजिए।
है 'नया' वक़्ते सफ़र, दीदार का हूँ मुन्तज़िर,
लोग कहने लग गए प्यासा, गया सुन लीजिए।
--- वी. सी. राय 'नया'

Monday, 17 June 2013

Mukhalif

आज समाचारों में दिग्विजय सिंह को कहते सुना कि राजनीति में स्थाई विरोधी कोई नहीं होता। इसने मुझे अप्रैल 1986 में कही एक ग़ज़ल की याद दिलादी जो आपकी खिदमत में पेश है। उन्ही दिनों देश में मिलीजुली सरकार पहली बार बनी थी।
------------- ग़ज़ल -------------
मुख़ालिफ़ मुस्तकिल कोई नहीं है।
यहाँ कमज़ोर दिल कोई नहीं है।
किसे शामिल करूँ मैं काफ़िले में,
कि दिल से मुत्तसिल कोई नहीं है।
मिज़ाजे गर्म कोई, सर्द कोई,
मिज़ाजे मातदिल कोई नहीं है।
लहू आँखों से इतना बह चुका है,
कि ताज़ा ज़ख्मे दिल कोई नहीं है।
सभी हँस कर मिलेंगे हर किसी से,
मिला पर दिल से दिल कोई नहीं है।
चुनू मैं कौन सा गुल खुशनुमा है?
मुकर जाती है गिल कोई नहीं है।
खुदा उनको बचाए बद नज़र से,
रुख़े रोशन पे तिल  कोई नहीं है।
--- वी. सी. राय  'नया'
( मुत्तसिल = सहमत , मातदिल = न गर्म न ठंडा - संतुलित , गिल = मिट्टी )

Saturday, 25 May 2013

APPEAL



मित्रो नमस्कार। आप सबने इस ज़मीन पर मेरे मुक्तक को बहुत सराह कर 50 से अधिक  Likes & Comments से नवाज़ा है। ग़ज़ल भी मुकम्मल हो गई है और आपकी सेवा में सुझावों  के लिए प्रस्तुत है।

दोस्तो ! आपकी अदालत में छोटी बह्र में एक 'क़ानूनी' ग़ज़ल पेश है।  आपके फ़ैसले का इंतज़ार है। साथ ही बताइयेगा कि अगल-बग़ल  हिन्दी व रोमन में पोस्ट कैसी लगी।

बड़े भैया नमस्कार। इस ग़ज़ल पर आपकी इस्लाह कि मुझे ज़रूरत है। कृपया बताएं कि बहर (मुत फ़ाइलुन मुत फ़ाइलुन ) की  मेरी समझ अब ठीक है या नहीं और ये शेर कैसे हुए हैं। इस ज़मीन पर ग़ज़ल कह कर कुछ दिन पहले पोस्ट की थी तो 'ग़ज़लकार' में कुछ लोगों ने बताया कि कई मिसरे बहर से ख़ारिज हैं। अपनी समझ से सुधारे हैं ज़रा देख लें तो इत्मीनान हो।

आदाब। कृपया शेरों कि बह्र देख कर जहाँ सुधार ज़रूरी है  बताने की तकलीफ़ करें। रहम लफ्ज़ के बारे में आपसे जानकारी पाकर मतले का दूसरा मिसरा बदल दिया है।

ग़ज़लकार के जानकार मित्रों से गुज़ारिश है कि सुधार के बाद इस ग़ज़ल पर एक नज़र डाल कर अब सुझाव दें व बताएँ कि क्या कोई शेर किसी क़ाबिल है - बहुत आभारी रहूँगा।
--- वी. सी. राय 'नया'

--------- ग़ज़ल ---------
न गवाह है न वकील है।
तिरी रहमतों से अपील है।
तू है चश्मदीद गुनाह का,
मेरे दिल की ये ही दलील है।    
ये जो दास्ताँ है गुनाह की,
तेरी ज़ुल्फ़ से भी तवील है।
मैं तो डूबता ही चला गया,              
तेरी आँख गहरी झील है।          
मिलना, बिछड़ना, भूलना,        
हर लफ़्ज़ संगे मील है।              
तेरी याद की शम्मा बनी,            
मेरी राह में कंदील है।                
मेरे दिल पे संगे गराँ 'नया',                
आँखों में उमड़ी झील है।
--- वी. सी. राय 'नया'



Taqteea ke lihaaz se sahi hai, lekin husn ke lihaaz se misre maza nahi dete, hi aur bhi sahi hain, kyun ke ye gir jaata hai, ye jaayaz hai
Ab ye dekhiye
Na gawaah hai na daleel hai Teri rahmatoN se apeel hai Tu hai chashmdeed gunaah ka Mere dil ki ye hi daleel hai Meri maasiyat ki ye daastaaN Teri zulf se bhi taweel hai MaiN to doobta hi chala gaya Wo nigaah gahri si jheel hai Wo milan wo doori wo bhoolna Tu muqaddaroN ka kafeel hai Tera zikr hai teri yaad hai Mera dil ke tera aleel hai Mere dil pe sang e garaaN 'Naya' To nazar meN ashkoN ki jheel hai
Zer o zabar aur saakin taqteea men gine jaate hain
Ek aur baat, ghazal men naghmagi sab se zaroori cheez hai, har misra paani ki tarah rawaan hona chaahiye


   Namaskaar.
MaiNne aapki ghazal tabhi dekh li thi jab aapne post ki thi. In dinoN mere paas ek kitaab ka kaam hai isliye kam hi online ho paata hooN. Un dinoN Ghazalkaar meN bhi aapki ghazal par bahas ho rahi thi. MaiN tabhi is baare meN kuchh likhta lekin aapki ye message aur messages ke neeche chali gaee. Yaani itne din baad aaj hi nazar ke saamne aaee. Aapki ghazal ki bahr hai : म त फ़ा ए लुन / म त फ़ा ए लुन 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 न ग वा ह है / न व की ल है Ye misra is bahr par khara utarta hai. Lekin matle ka saani misra is bahr meN naheeN hai. Aage : 3. Khaarij. 4. Sahi ( मे ki maatra gira kar) Isee tarah aage ke kaee misre bhi bahr se khaarij haiN. Urdu shayri ki naghmagi aur rawaani laghu aur deergh swaroN ki tarteeb (kram) par aadhaarit hoti hai. Aapki ye ghazal आद्योपांत पुनर्विचार मांगती है।
Chat Conversation End





           
--- वी.सी. राय 'नया'      

N gwaah h n daleel h-theek h
Doosra misra gdbad h
Teesra misra bhi gadbad h
Chautha misra bhi gadbad h
Mere....ye bhi gadbad h.
Tiree zulf .....ye theek h
Main.....gadbad h
Wo.....gadbad h
Milna....gadbad
Hr lafz...gadbad
Bs yaad....gadbad
Ik raah....gadbad
Seene.....gadbad
Aankhon....gadbad
Upaay ye h ki hm diye gye misre ko khoob gungunaakr dekg len phir taqtee'a bhi kr len
Main hamtum mein vistaar se samjhane ka prayaas karoonga








मुत   फ़ा  इ  लुन  मुत   फ़ा  इ  लुन
  2      2    1    2      2      2   1    2

न ग   वा  ह    है    न व   की  ल   है।
तुझ    से  र   हम कि अ  पी  ल    है।
तू चश्मदीद गुनाहों का ,
इक़बाल मेरी दलील है। चलती न कोइ दलील है।
मेरे गुनाह की दास्ताँ ,
तेरी ज़ुल्फ़ से भी तवील है।
मैं डूबता ही चला गया,            
वह आँख गहरी झील है।        
मिलना, बिछड़ना, भूलना,      
हर लफ़्ज़ संगे मील है।            
बस याद कुर्बत की तेरी,          
इक राह में कंदील है।              
सीने पे संगे गराँ 'नया',              
आँखों में उमड़ी झील है।            



N GAVAH HAI N VAKIL HAI.
TUJHSE RAHEM KI APEEL HAI.
SABSE BADI IJLAAS MEn,
CHALTI N KOI DALEEL HAI.
MERE GUNAH KI DASTAAn,
TERI ZULF SE BHI TAVEEL HAI.
MAI DUBTA HI CHALA GAYA,
WOH AANKH GAHRI JHEEL HAI.
MILNA, BICHHADNA, BHULNA,
HAR LAFZ SANGE MEEL HAI.
BAS YAD QURBAT KI TERE,
IK RAH MEn QANDEEL HAI.
SEENE PE SANGE GARAAn 'NAYA',
AANKHOn MEn UMDI JHEEL HAI.
--- V. C. Rai 'Naya'
न सबूत है न दलील है।      
रहमत से तेरी अपील है।     
फ़ेहरिस्त जुर्मों की मिरे,      
जुल्फों से तेरी तवील है।            
मुन्सिफ़ तेरी इजलास में,       
तू खुद ही मेरा वकील है।
ज़ुल्मो सितम पर बेरुख़ी,            
हर ज़ख्म जाती छील है।            
मिलना, बिछड़ना, भूलना,          
हर लफ़्ज़ संगे मील है।                
मैं डूबता ही चला गया,                
वह आँख गहरी झील है।            
बस याद कुर्बत की तेरी,              
इक राह में कंदील है।                  
सीने पे संगे गराँ 'नया'                  
आँखों में उमड़ी झील है।                
--- वी.सी. राय 'नया'                    
मुत   फ़ा  इ  लुन  मुत   फ़ा  इ  लुन
  2      2    1    2      2      2   1    2
न स   बू   त   है    न  द  ली  ल   है  
र  ह  मत स   ते   रि अ  पी  ल    है      
फ़िह रिस् त  जुर्  मों    की  मि   रे          
जु ल्  फ़ों  स    ते   रि त  वी  ल   है              
मुन्  सिफ़ ति  री   इज   ला  स   में,            
 तू    खुद   हि  मे   र व   की  ल   है।

ज़ुल्मो सितम पर बेरुख़ी,            
-------- ग़ज़ल --------              
न सबूत है न दलील है।                 N SABUT HAI N DALEEL HAI.
बस रहमतों से अपील है।              BAS RAHMATOn APEEL HAI.
फ़ेहरिस्त जुर्मों की मिरे,                FEHRIST JURMOn KI MERE .
जुल्फों से तेरी तवील है।                ZULFOn SE TERI TAWEEL HAI.
मुन्सिफ़ तेरी इजलास में,              MUNSIF TERI IJLAS MEn,
तू खुद ही मेरा वकील है।                TU KHUD HI MERA VAKEEL HAI.
ज़ुल्मो सितम पर बेरुख़ी,               ZULMO SITAM PAR BERUKHI,
हर ज़ख्म जाती छील है।               MERE ZAKHM JATI CHHEEL HAI.
मिलना, बिछड़ना, भूलना,              MILNA, BICHHADNA, BHULNA,
हर लफ़्ज़ संगे मील है।                   HAR LAFZ SANGE MEEL HAI.
मैं डूबता ही चला गया,                    MAIn  DUBTA HI CHALA GAYA,
वह आँख गहरी झील है।               TERI AnKH GAHRI JHEEL HAI.
बस याद कुर्बत की तेरी,                  BAS YAD QURBAT KI TERI ,
इक राह में कंदील है।                      MERI RAH MEn QANDEEL HAI.
सीने पे संगे गराँ 'नया'                     SINE PE SANGE GARAn 'NAYA'.
आँखों में उमड़ी झील है।                   AnKHOn MEn UMDI JHEEL HAI.
--- वी.सी. राय 'नया'                        ---- V. C. Rai 'Naya'
-------- ग़ज़ल --------                


---------- GHAZAL ----------

दोस्तो ! आपकी अदालत में छोटी बह्र में एक 'क़ानूनी' ग़ज़ल पेश है। आपके फ़ैसले का इंतज़ार है। साथ ही बताइयेगा कि अगल-बग़ल हिन्दी व रोमन में पोस्ट कैसी लगी। 
-------- ग़ज़ल -------- ---------- GHAZAL ----------
न सबूत है न दलील है। N SABUT HAI N DALEEL HAI.
तेरी रहमतों से अपील है। TERI RAHMATOn SE APEEL HAI.

फ़ेहरिस्त जुर्मों की मिरे, FEHRIST JURMOn KI MERE .
जुल्फों से तेरी तवील है। ZULFOn SE TERI TAWEEL HAI.

मुंसिफ़ तेरी इजलास में, MUNSIF TERI IJLAS MEn,
तू खुद ही मेरा वकील है। TU KHUD HI MERA VAKEEL HAI.

ज़ुल्मो सितम पर बेरुख़ी, ZULMO SITAM PAR BERUKHI,
मेरे ज़ख्म जाती छील है। MERE ZAKHM JATI CHHEEL HAI.

मिलना, बिछड़ना, भूलना, MILNA, BICHHADNA, BHULNA,
हर लफ़्ज़ संगे मील है। HAR LAFZ SANGE MEEL HAI.

मैं डूबता ही चला गया, MAIn DUBTA HI CHALA GAYA,
तेरी आँख गहरी झील है। TERI AnKH GAHRI JHEEL HAI.

बस याद कुर्बत की तेरी, BAS YAD QURBAT KI TERI ,
मेरी राह में कंदील है। MERI RAH MEn QANDEEL HAI.

सीने पे संगे गराँ 'नया' SINE PE SANGE GARAn 'NAYA'.
आँखों में उमड़ी झील है। AnKHOn MEn UMDI JHEEL HAI.
--- वी.सी. राय 'नया' ---- V. C. Rai 'Naya'

Monday, 13 May 2013

Kamal ki Tarah

मित्रों नमस्कार। आज १३ मै को श्री श्री रविशंकर जी के जन्म दिन के अवसर पर  लखनऊ में आर्ट आफ़ लिविंग का ध्यान व सत्संग कार्यक्रम है "तेरा मैं", और ४५ साल पहले आज  ही की तारीख को मेरा व श्रीमती जी का "तेरा मैं - मेरी तू" यानी विवाह हुआ था। इस उपलक्ष में एक ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ - बताइयेगा कैसी लगी।
---------------- ग़ज़ल -----------------
खिला है चेहरा तेरा आज भी कमल की तरह।
तिरा शबाब नया तू नई ग़ज़ल की तरह।।
सही हैं  राह की कठिनाइयाँ सभी हँस कर,
सजाई कुटिया मेरी प्यार से महल की तरह।
मेरी थी शोख़ नदी जैसी ज़िन्दगी चंचल ,
हुई पवित्र तेरे साथ गंगा जल की तरह।
तुम्हारा प्यार मिला, बेख़बर हुए जग से,
पलक झपकते ही बीते हैं साल पल की तरह।
वो हमसफ़र है 'नया', हमनशीं औ हम साया,
वो असलियत है मेरी और मै असल की तरह।
--- वी. सी. राय 'नया'
 

Sunday, 12 May 2013

Rail Minister

त्यागपत्र देने वाले रेलमंत्री 
लालबहादुर शास्त्री जी के बाद कदाचित पवन बंसल पहले रेलमंत्री हैं जिन्होंने दुर्घटना के फलस्वरूप त्यागपत्र दिया। शास्त्री जी ने रेल दुर्घटना के बाद और बंसल जी ने CBI दुर्घटना के बाद।
--- वी. सी. राय 'नया'
 

Monday, 6 May 2013

Aisa Zamana

FB के मित्रो ! एकदम ताज़ा ग़ज़ल देखिये। इसमें 6 मतले व 1 शेर है और हर मतले का पहला मिसरा common है। पिछले 50  वर्षों की कुछ राजनीतिक घटनाओं की याद आये तो दाद दीजियेगा।
-------------------- ग़ज़ल -------------------- 
हमने अपनी आँखों से ऐसा भी ज़माना देखा है।
रामराज्य का सपना औ' उसका मिट जाना देखा है।
हमने अपनी आँखों से ऐसा भी ज़माना देखा है।
एक बैल का गैया, इक बछड़ा बन जाना देखा है।
हमने अपनी आँखों से ऐसा भी ज़माना देखा है।
वरद हस्त का इधर सभी ने चपत लगाना देखा है।
हमने अपनी आँखों से ऐसा भी ज़माना देखा है।
कीचड़ से खिल कमल का कीचड़ में सन जाना देखा है।
हमने अपनी आँखों से ऐसा भी ज़माना देखा है।
पशु का चारा चरवाहों का खा के पचाना देखा है।
हमने अपनी आँखों से ऐसा भी ज़माना देखा है।
आज सियासी हवा में लालटेन का बुझ जाना देखा है।
हमने अपनी आँखों से ऐसा भी ज़माना देखा है।
साइकिल से टकरा कर हाथी का गिर जाना देखा है।
गर्दन ऊँची करके अकड़े या कोई भी करवट ले,
पर्वत ले नीचे हमने हर ऊँट का आना देखा है।
--- वी. सी. राय 'नया'

Wednesday, 13 March 2013

Rang Holi ka

दोस्तों ! होली तो आ ही गई। सबको शुभकामनाओं के साथ सादर प्रस्तुत है -
---------- एक होली ऐसी भी ------------
रंग  होली  का  तेरे  गालों  पे आया  होता।
मैंने गर नग़मा मोहब्बत का सुनाया होता।
हाथ अगर मैंने तेरी सिम्त बढ़ाया  होता।
तूने रुख़ झट से हथेली में छिपाया होता।
तेरी आँखों में दिवाली सी चमकने लगती,
मेरे आने की ख़बर कोई जो लाया होता।
मुझको भी होली पे दो दिन की तो छुट्टी मिलती,
डिग्रियों ने जो कहीं काम दिलाया होता।
आज महफ़िल में तो तू झूम के नाची होती,
मेरी ग़ज़लों ने 'नया' रंग जमाया होता।
--- वी . सी . राय 'नया'

Monday, 4 March 2013

Kya Hun, Kyun Hun

छोटी बहर में चार मतले व एक शेर की ग़ज़ल देख कर कृपया सुझाव / प्रतिक्रिया व्यक्त करें -
----------- ग़ज़ल ----------
क्या हूँ, क्यों हूँ, किससे पूछूँ ?
ज्ञानी इतना किसको मानूँ ?
मंज़िल न दिखे, चलता जाऊँ ?
आख़िर कबतक मन भरमाऊँ ?
बेहतर होगा तुझको सोचूँ।
मानूँ तुझको, तुझको समझूँ।
सरबस अपना तुझको सौंपूँ।
तुझमे घुलमिल सब झुठलाऊँ।
झूट है सब, सच केवल तू है,
ख़ुद को 'नया' कैसे समझाऊँ।

--- वी. सी. राय 'नया'

हुमा जी ! कृपया इन शेरों की बहर चेक करके राय दें। मेरा 'तक्ती ' करना भी देख कर ग़लती बताएं  -
 २    २         २     २     २     २    २   २      (फ़े लुन  x  ४ )
मं  ज़िल   न दि  खे, चल  ता  जा  ऊँ ?
आ ख़िर    कब  तक मन भर  मा  ऊँ ?
सब झू      ट ह   सच  के  वल  तू    है,
ख़ुद कु न   या     कै   से  सम  झा  ऊँ।

Ham Tum  में शरद तैलंग जी की इस ग़ज़ल पर टिपण्णी भी देख लीजियेगा। पूरी ग़ज़ल है -
क्या हूँ, क्यों हूँ, किससे पूछूँ ?
ज्ञानी इतना किसको मानूँ ?
मंज़िल न दिखे, चलता जाऊँ ?
आख़िर कबतक मन भरमाऊँ ?
बेहतर होगा तुझको सोचूँ।
मानूँ तुझको, तुझको समझूँ।
सरबस अपना तुझको सौंपूँ।
तुझमे घुलमिल सब झुठलाऊँ।
सब झूट है, सच केवल तू है,
ख़ुद को 'नया' कैसे समझाऊँ।
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Tuesday, 26 February 2013

Pas bhi Tu

मित्रो ! छोटी बहर में एक ग़ज़ल पोस्ट कर रहा हूँ। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है।
-------- ग़ज़ल ---------
दूर है तू पर पास भी तू।
जीवन का एहसास भी तू।
तू ही तू है दिल में मिरे,
चलती हुई हर श्वास भी तू।
मेरे लिए दुनिया में तिरी,
आम है तू पर ख़ास भी तू।
आस जगाई जो दिल में,
पूरी कर अब आस भी तू।
दृश्य है तू संगीत भी तू,
ख़ुशबू और मिठास भी तू।
स्पर्श से अपने अब भर दे,
एक 'नया' विश्वास भी तू।
--- वी. सी. राय 'नया'

Thursday, 14 February 2013

Gaon me a jayega

दोस्तों! आप सबने 'शेर राजा' वाले शेर को नवाज़ कर 'likes' की सेंचुरी की, तहेदिल से शुक्रिया। लीजिये पेश है पूरी ग़ज़ल। उम्मीद है कि और शेर भी आपको पसंद आयेंगे।
---------------- ग़ज़ल ------------------
शह्र का हर रोग तेरे गाँव में आ जाएगा।
सब्र का दामन जो छोड़ा दाँव में आ जाएगा।

काट कर जंगल बढ़ा ली तुमने बस्ती तो मगर,
शेर राजा है, किसी दिन गाँव में आ जायेगा।
पेड़ बिन सोचे जो काटे, है ये उनकी बद्दुआ,
बाढ़ औ' सूखे के दोहरे दाँव में आ जाएगा।  
बढ़ के बरगद की तरह बाँहों से भी पकड़ो ज़मीं,
धूप - बारिश से परीशाँ छाँव  में आ जाएगा।
हौसला परवाज़ का हो आसमानों सा बुलंद,
आसमाँ खुद झुक के तेरे पाँव में आ जाएगा।
चाशनी कौवे को पीते देख कर आया ख्याल,
उसका मीठापन कभी तो काँव में आ जाएगा।
हुस्न की हर एक अदा ही शायरी है ऐ 'नया',
गीत बन कर कल ग़ज़ल की छाँव में आ जाएगा।
--- वी.सी. राय 'नया'
आज मुंबई में तेंदुए के आतंक के समाचार ने एक पुराना शेर याद दिलाया, जो पहले भी 2-3 बार चरितार्थ हुआ है। आप भी देंखें -    (पूरी ग़ज़ल बाद में पोस्ट करूँगा।
काट कर जंगल बढ़ा ली तुमने बस्ती तो ज़रूर,
शेर राजा है, किसी दिन गाँव में आ जायेगा।
--- वी.सी. राय 'नया'

Tuesday, 12 February 2013

Basanti Hawaen

'प्रयास' के प्रथम अंक के लिए प्रस्तुत है एक बसंती ग़ज़ल -
------------- ग़ज़ल --------------
ये पतझर का मौसम, बसंती हवाएँ।
सदा साथ एक दूसरे का निभाएँ।
जो पत्ते सुखाएं, गिराएँ , उड़ाएँ।
हवाएँ वही कोपलें भी खिलाएँ।
गुलों को बरसने का अरमा बहुत है,
ज़रा आप गुलशन में आ मुस्कराएँ।
अंधेरो अभी लो निकलता है सूरज,
कहाँ तक हिमायत करेंगी घटाएँ।
अँधेरा 'नया' इक उजाला बनेगा,
ज़रा आप चेहरे से चिलमन हटाएँ।
--- वी.सी. राय 'नया'

Sunday, 3 February 2013

Jan Lijiye

FB के दोस्तो ! पेश है एक ताज़ा ग़ज़ल, जिसका मतला बहुत पहले मज़ाक में कहा था (फ़िल्मी गीत सुनकर)
---------------- ग़ज़ल -----------------
दिल चीज़ क्या है आप मेरा जान लीजिए।
सोना है ये कि ठीकरा , पहचान लीजिए।
सोने के भाव भी जो बिके दिल बाज़ार में,
मिट्टी के मोल ही वो गया मान लीजिए।
मुस्कान उसकी एक मिले गर जहान में,
फ़ौरन लपक के, दे के दिलो जान लीजिए।
जो है दोस्ती अज़ीज़ न हरगिज़ अज़ीज़े मन,
एहसान कीजिए औ' न एहसान लीजिए।
पहचानिए सिफ़त ये तबस्सुम की ऐ 'नया',
मुस्काइये औ' बदले में मुस्कान लीजिए।
--- वी. सी. राय 'नया'

Monday, 28 January 2013

Matla

FB के दोस्तों ! इस ग़ज़ल के मतले में उर्दू के अनुसार 'मतला' व 'निकला' शायद हमक़फ़िया न हों, पर हिन्दी में तो ऐसे ही लिखते हैं, अतः मै छूट ले रहा हूँ। आपकी समीक्षा के लिए सादर पेश है -
--------------- ग़ज़ल -----------------
यों सरे शाम ग़ज़ल छेड़ के बैठी मतला।
सुब्ह मक़्ते पे हुई गीत बना दिन निकला।
एक-एक शेर पे दी दाद ग़ज़ल ने मुझको,
ऐसे माहौल में हर शेर ग़ज़ब का निकला।
आज माहौल की गर्मी औ' दबावों से न डर,
हीरा बनता है ज़मीं में ही तो दब कर कोयला।
आँसुओं में भी तो होती है बला की गर्मी,
दिल अगर दिल है तो आँसू से हमेशा पिघला।
हुस्न के हाथ में देखी जो कमाँ शोख़ी की,
तीर खाने को मेरा फिर से 'नया' दिल मचला।
--- वी. सी. राय 'नया'


Sunday, 20 January 2013

Dhuan

FB के मित्रो ! सादर पेश है आज के हालात की एक
------------------ ग़ज़ल ---------------------
धुआँ-धुआँ-धुआँ-धुआँ, है हर तरफ  धुआँ-धुआँ।
भटक रहा है हर बशर, मैं ही एक नहीं यहाँ।
एक आग है दबी-दबी, झुलस रही है ज़िन्दगी,
सुलग रहा है आसमाँ, सुना रहा है दास्ताँ।
धुएँ की एक दीवार है, ये रहबरी कमाल है,
न राह सूझती कोई, कि काफ़िला चला कहाँ।
कि चिमनियों से हैं कहीं, कि गाड़ियों से हैं कहीं,
कि सिगरेटों से हैं कहीं, ये जिस्म हो रहे धुआँ।
ये नीव थी चट्टान की, जो रेत के मकान की,
ये आँधियों में उड़ चला, तो नीव ही बची निशाँ।
वो अधजली चिताओं से भी चुन के लाए लकड़ियाँ,
कि चूल्हा घर में तब जले, ये मुफ़लिसी का इम्तिहाँ।
ये शोला-ए अज़ाब है, सिसक रहा है जो 'नया',
हवाएँ दो भड़क उठे, न फिर रहे कहीं धुंआ।
--- वी. सी. राय 'नया'

Monday, 14 January 2013

Jalakar Dekhen

FB के दोस्तों को लोहड़ी, मकर संक्रांति व पोंगल की बधाई के साथ पेश है आपसी सौहार्द की एक -
---------------- ग़ज़ल -----------------
दिल के सोए हुए जज़्बात जगा कर देखें।
एक दिया घर में पड़ोसी के जला कर देखें।
उनसे कह दो कि मेरा घर भी जल कर देखें।
हम भी ज़ख्मों को ज़रा आंच दिखा कर देखें।
माना मंजिल है अलग, राह जुदा है अपनी,
आओ दो चार क़दम साथ बढ़ा  कर देखें।
आस्तीनों में लिए फिरते हैं खंजर जो सदा,
आज हम उनको भी सीने से लगा कर देखें।
(आज सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण हो रहे हैं। मेरा भी मन आज के हालत से इस शेर को बदलने का हो रहा है)
आस्तीनों में लिए फिरते हैं खंजर जो सदा,
हम कहाँ तक उन्हें सीने से लगा कर देखें।
आज मंज़र ये 'नया' बज़्म में सबने देखा,
परदे वाले भी मुझे आँख बचा   कर देखें। 
--- वी. सी. राय 'नया' 

Wednesday, 9 January 2013

Sada de gaya

दोस्तों! एक ग़ज़ल खिदमत में पेश है। 
------------ ग़ज़ल -------------
पास आ के कोई इक सदा दे गया।
दिल के शोलों को मेरे हवा दे गया।
रात  भर तन जलाए फिरा दश्त में,
मेरी मंजिल का जुगनू पता दे गया।
जान  दे कर मुझे मिल गई ज़िन्दगी,
वो वफ़ाओं का मेरी सिला  दे गया।
ग़म नहीं ख़ून करता है गर कुछ दग़ा,
जब पसीना ही अपना दग़ा दे गया।
वक़्त की क़ैद में ज़िन्दगी है 'नया',
कौन है जो इसे ये सज़ा दे गया।
--- वी. सी. राय 'नया'

Saturday, 5 January 2013

Dhup-Chanv

मित्रो ! गुडगाँव में Min. 0.7 Deg C से जूझते हुए और 24 घंटों में मात्र 3 घंटे, 12 से 3, धूप और छाँव की आँख-मिचौली देखते हुए एक पुरानी ग़ज़ल याद आई, जिसमे 4 मतले व 4 शेर हैं। देखिए शायद अच्छी लगे।

अभी नज़र में आया की आज अभिव्यक्ति में एक भी ग़ज़ल पोस्ट नहीं हुई है। लीजिये एक  धूप-छाँही -
------------- ग़ज़ल --------------
जीवन है धूप कभी और कभी छाँव।
कोयल की कूक कभी कौवे की काँव।

बहुरे दिन पत्थर के पीपल की छाँव।
आज उसे देव बना पूज रहा गाँव।

पथरीली राहें हैं ज़ख़्मी हैं पाँव।
चलना है नियति तेरी दूर तेरा गाँव।

रोटी की आस लिए घर से चला गाँव।
छत के लिए शह्र उधर ढूँढ रहा ठाँव।

जीवन भटकाव बना मृगतृष्णा चैन,
छोड़ तेरे आँचल की सुखदाई छाँव।

बदला कुछ ऐसा है जीवन का मोल,
जीवन अनमोल चढ़े अनचाहे दाँव।

बाँहों पे रेंग रहे ज़हरीले नाग,
डसने को व्याकुल हो खोज रहे दांव।

साजन के आवन का पक्का संकेत,
भिनसारे अँगना में कागा की काँव।
--- वी. सी. राय 'नया'

Wednesday, 2 January 2013

New Year 2013

आया नया साल सन तेरा।
बारा का उट्ठा डम्बर-डेरा।
जंतर-मंतर पर कैंडिल ने,
आज व्यवस्था को है घेरा।
नववर्ष में समुचित सुरक्षा, स्वास्थ, समृद्धि एवं संतुष्टि की शुभकामनाएँ।
--- वी. सी. राय 'नया'

वैसे -
नया साल तो 'नया' का है, New Year is mine.
सबकी ओर से करूँ प्रार्थना, God! Let's have Sun shine.
In the heart of every person, things should brighten-up,
चाहे सन हो, या संवत हो, या शकाब्द - रहे FINE.
--- V.C. Rai 'Naya'